अध्याय ३

शान शुरुवात से ही, याने बचपन से ही दूसरों से अलग था. और हाल ही में एक जिम्मेदार वयस्क के नाते भी उसने एक अलग सा निर्णय ले लिया था, धर्मरहित जीवन जीने का. वह केवल एक धर्म से बंधा रहना नहीं चाहता था.

उसने जल्दी ही अपने नये धर्म को, जिसका कोई नाम नहीं था, एक परिभाषा दे दी. परिभाषा सिर्फ एक वाक्य भर की थी. और वह एक वाक्य था, “खुद के लिए और दूसरों के लिये अच्छा महसूस करो, अच्छा सोचो और अच्छा करो.” यही मानव-धर्म है. कितनी सरलता है धर्म की इस परिभाषा में. पर शान ने इसका नाम ‘धर्म’ नहीं रखा. इसे वह उसके जीवन जीने का एकतम ‘मार्ग-दर्शक सिद्धांत’ मानता था.

लाख कोशिशों के बाद भी वह खुद को जता नहीं पाया कि किसी एक धर्म का पूर्णतः पालन करके वह जीने के अंदाज़ में कोई और अधिक सुधार ला पाएगा. उसने अब तक यह देखा था कि हर एक संगठित धर्म कुछ ऐसी रूढ़ियों, परम्पराओं, सोच और नियमों में उसे अपनाने वाले को जकड़ लेता है, जो उसे पीछे खींचती हैं, जीवन में आगे ले जाने के बजाय. और शान पीछे जाने वालों में से नहीं था.

छुटपन से लेकर आज तक शान ने, कई सारी सामाजिक मान्यताओं को भी, जो उसके नज़रिये में कुरीतियों की तरह थी, ठुकरा दिया था. 

भारतीय समाज में अपने से बड़ो को ‘चाचा, चाची, अंकल, आंटी, सर या मैडम’ कहकर सम्बोधित करने का आम रिवाज है. पर शान छुटपन से ही ऐसा करने के लिये तैयार नहीं होता था, बड़े बुजुर्गों के समझाने पर भी. वह सबको उनके नाम या सरनेम से, उसमे आदरपूर्ण ‘मिस्टर, मिसेज, मिस, जी’ जोड़कर बुलाता था.

वह हाईस्कूल और कॉलेज के शिक्षकों को भी उनके सरनेम के सामने आदरयुक्त ‘मिस्टर, मिसेज, मिस’ जोड़कर ही बुलाता था. उसे ‘सर, सर’ करना या कहना पसंद नहीं था.

उसके इस तरह के व्यवहार के पीछे का उसका तर्क कुछ ऐसा था- “बहुतांश लोग ‘मालिक-दास’ प्रथा से हमेशा इतने प्रभावित रहते हैं और आदी हो चुके हैं कि संस्थाओं और समाज के नीचे तपके में समझे जाने वाले लोग अपने आपको ‘दास’ के रूप में महसूस करते हैं जब कि उच्चभ्रू लोग खुद को ‘मालिक’ की तरह पेश करते हैं. इस परिस्थिति में ‘सर’ का सम्बोधन घी में तेल डालने वाला काम करता है. ऐसे माहौल में काम सम्बन्धी बातें अक्सर ताक पर रख दी जाती हैं. ‘मालिक’ अपनी टशन में रहता है और ‘दास’ अपनी चाटुकारिता में. दोनों ही अपने उल्लुओं को किसी तरह से सीधा करने में लगे रहते हैं और वास्तविक काम धरा धराया रह जाता है. इन सब में सिर्फ स्वार्थ की बू आती है. आदर का आदान प्रदान करने के लिये बहुत कम लोग ‘सर’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं.”

ज्यादातर लोग शान के इस तर्क से सहमत तो होते थे पर उनमे इसे अमल में लाने की हिम्मत नहीं थी.

और शिक्षकों को तो शान की यह बात बिलकुल भी नहीं भाती थी. इस वजह से कभी कभी परीक्षाओं में उसे कुछ विषयों में थोड़े कम गुण भी दिए जाते थे यद्यपि वह पाठशाला का सबसे होशियार और प्रतिभाशाली विद्यार्थी था. ऐसा होने के बावजूद भी शान इस विषय में समझौता करने के लिए तैयार नहीं था.

एक बार शान के घर एक महत्वपूर्ण बुजुर्ग पुरुष आने वाले थे. शान के पिताजी ने शान को समझाया, “इन बुजुर्ग महाशय को ‘सर’ कहकर बुलाएँ. वे आपसे उम्र में बहुत बड़े हैं और उन्हें ‘सर’ कहकर सम्बोधित करना शिष्टाचार है.”

शान ने नम्रता से जवाब दिया, “डैड, वे बड़े जरूर हैं पर उन्हें देखकर मेरे मन में उनके प्रति आदर की भावना नहीं आती. वे हमेशा झूठ बोलते रहते हैं. बात बात में गालियाँ भी देते हैं. बुजुर्ग होने के बावजूद उनमें कोई ख़ास अच्छाइयाँ नहीं दिखती हैं. इसी वजह से उन्हें आदर देने के लिए मेरा मन नही करता.”

शान की माँ ने भी शान को समझाने की कोशिश की पर वह उसके विचारों को बदलने में नाकामयाब रही. फिर भी अपने माता-पिता की इच्छाओं का सन्मान रखने के लिए और उसकी वजह से घर में कोई नाटक न हो जाए, इन सबका ख़्याल करके, जब तक वे बुजुर्ग घर में थे तब तक वह घर से बाहर ही रहा. अपने मित्रों के साथ खेलता रहा.

शान में छोटी उम्र में ही एक तरह की परिपक्वता आ गई थी. वह खूब पढ़ता था. उसे किताबों से लगाव था. उसको सूक्ष्मता से निरीक्षण और परीक्षण की आदत लग गई थी. उसने थोड़े ही समय में काफी सारा ज्ञान हासिल कर लिया था. यही कारण था कि उसकी सोच में इतना लचीलापन और क्षमता आ गई थी कि वह सारी अच्छाइयों को अपना लेता और सारी बुरी मान्यताओं, रूढ़ियों, परम्पराओं और अंधविश्वासों को ख़ारिज करने में चूकता नही था चाहे उन्हें किसी भी समाज या धर्म का कितना ही आधार क्यों न मिला हो.

जब वह बच्चा था तब ऐसे कई मौके आते थे जब वह अपनी माँ के साथ चर्च जाता. चर्च घर के पास ही था. थोड़ा बड़ा होने पर उसने एक दिन माँ से पूछा, “मॉम, मैं देखता हूँ कि डैड कभी भी हमारे साथ ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए चर्च नही आते हैं. ऐसा क्यों?”

“डैड दूसरे धर्म में विश्वास करते हैं. इसलिए उन्हें ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए मस्जिद में जाना पड़ता है,” एलिस ने शान को समझाया.

“मॉम, पर आप तो हमेशा कहती है कि भगवान एक है. फिर आपके लिए और डैड के लिए वह अलग अलग क्यों हो जाते हैं? भगवान को तो चर्च और मस्जिद दोनों में ही होना चाहिये. इसलिए डैड हम दोनों के साथ चर्च में भी ईश्वर की प्रार्थना कर सकते हैं. और हाँ मॉम, जब मैं डैड के साथ मस्जिद जाता हूँ तब आप भी हमारे साथ आ सकती हैं और वहाँ ईश्वर की प्रार्थना कर सकती हैं. है न?”

“शान, हम ऐसा नहीं कर सकते. हम निश्चित किये गए स्थापित नियमों के अनुसार ही किसी भी काम को कर सकते हैं. भगवान की प्रार्थना भी उन्हीं नियमों के मुताबिक की जाती है. नियम बताते हैं कि किस धर्म का व्यक्ति किस मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरूद्वारे या अन्य जगह जाए और कब, किस तरह और कितनी बार पूजा करे. हम इन नियमों को आसानी से तोड़ नहीं सकते. लोगों की निगाहें आप पर लगी रहती हैं कि आप निश्चित किये गए नियमों का पालन करते हैं कि नहीं?”

“फिर, मॉम, आप और डैड जैसा उचित समझे वैसा करें. फिर भी मैं आप बड़े लोगों की बातें समझ नहीं पाता. आप दोनों और दूसरे कई लोग कहते रहते हैं कि भगवान हर कहीं हैं, सर्वव्यापी हैं. वे अपने खुद के दिल में भी बसे होते हैं. फिर चर्च, मस्जिद, मंदिर, गुरूद्वारे जाने की बात समझ नहीं आती. मैं कहीं भी ईश्वर की प्रार्थना कर सकता हूँ क्योंकि आख़िरकार वे तो मेरे दिल में ही रहते हैं.”

शान को अब क्या जवाब दे, एलिस को कुछ सूझा नहीं. उसने उन दोनों के बीच हो रही चर्चा को वहीँ टाल दिया. तब तक वे चर्च भी पहुँच चुके थे और चर्च में शान्ति बनाये रखना आवश्यक भी था. इस विषय में और अधिक जानकारी लेने की जिज्ञासा होने के बावजूद शान चर्च में चुप रहा. बाद में भी उसने इस विषय पर चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया. वह यह समझने में तेज था कि किस चर्चा को कितना आगे बढ़ाना चाहिये और किसे आधे अधूरे में बंद कर देना चाहिये.

जब वह स्कूल की ऊँची कक्षाओं में और बाद में कॉलेज जाने लगा तब उसने अपनी माँ के साथ चर्च और पिता के साथ मस्जिद जाना छोड़ दिया. यदि उसे किसी वजह से किसी तरह की प्रार्थना करने की इच्छा या आवश्यकता महसूस हुई तो वह खड़े-खड़े, बैठे हुए, लेटे हुए या चलते-चलते ही अपने तरीके से कुछ सेकंड या कुछ मिनट प्रार्थना कर लेता. प्रार्थना में क्या कहा जाए या केवल शांत रहा जाये, इसके बारे में वह खुद निर्णय लेता. उसने एलिस और युसूफ के प्रार्थना करने के तरीकों को ज्यादा महत्व देने के बजाय, ईश्वर से प्रार्थना करने की खुद बनाई हुई प्रक्रियाएँ अमल में लाना शुरू कर दी.

वह जब बहुत छोटा बच्चा था तब युसूफ को ‘अब्बा’ और एलिस को ‘मॉमी’ या ‘अम्मी’ कहकर बुलाता था. पर जल्द दूसरों की देखा-देखी ‘डैड’ और ‘मॉम’ बुलाने लगा. अब जब और बड़ा हो गया और थोड़ी ज्यादा समझ आ गई तब से उन्हें अलग अलग सम्बोधनों से बुलाकर परेशान करने लगा. युसूफ को कभी कभी ‘पापा’ और ‘बाबा’ भी बुलाता. एलिस को ‘मम्मी’ और ‘माँ’. अलग अलग धर्म किस किस तरह से इंसानों को प्रभावित करते हैं, इसका अंदाज़ उसे आने लगा था. ये सब देखकर उसे मजा आता.

एक बार वह अपने एक हिन्दू मित्र के साथ एक मंदिर गया. वहाँ उसके मित्र ने भगवान के सामने चढ़ावे के रूप में कुछ पैसे रखे. शान ने उससे पूछा, “तुम भगवान को रिश्वत क्यों दे रहे हो? सब लोग कहते हैं कि उनका ह्रदय बहुत बड़ा होता है. वे सबको कुछ न कुछ देते रहते हैं, लेते कुछ भी नहीं, पैसे तो कतई नहीं. उनके पास सब कुछ है. पैसों की जरूरत तो हम जैसे इंसानों को होती है, ईश्वर को बिलकुल नहीं.”

शान के मित्र ने शान को अजीब नज़रों से देखा और भगवान को कुछ रुपये चढ़ाये. उसने मन ही मन सोचा, “शान एकदम पागल है. जब कोई भी मंदिर आता है तब उसे भगवान को चढ़ावा देना जरूरी हो जाता है. ऐसे पवित्र काम के बारे में मूर्खता पूर्ण और उलटे-सीधे सवाल पूछना सही नहीं है. ऐसे सवालों को पूछकर शान ने जो अपराध किया है उसे धोने के लिए अब मुझे भगवान की, अन्य दिनों को तुलना में, ज्यादा प्रार्थना करना पड़ेगी.”

जब वह कॉलेज में पढ़ता था तब की बात है. छुट्टियों में वह उसके मित्र के घर रहने गया. उसका मित्र इसाई था. वह शान को चर्च ले गया. एक चर्च उसके घर के करीब था. पर वहा ले जाने के बजाय वह शान को एक अलग चर्च में ले गया जो उसके घर से आठ किलोमीटर दूर था.

जब वे दोनों चर्च पहुँचे तब शान ने मित्र से पूछा, “तुम तुम्हारे घर के पास वाले चर्च में क्यों नहीं गये?”

“नहीं, शान. वह हमारा चर्च नहीं है. वहा समाज के बड़े लोग, ऊचे लोग जाते हैं. हमारे जैसे साधारण या गरीब लोगों का चर्च यहाँ है.”

“तो क्या दोनों गिरिजाघरों के ईश्वर भी अलग अलग हैं?”

“नहीं. शान, दोनों के ईश्वर एक ही हैं.”

ऐसे विरोधाभास शान को चक्कर में डाल देते थे और सोचने पर मज़बूर कर देते थे.

स्कूल और कॉलेज में छात्र अक्सर अपने शिक्षकों को किसी न किसी तरह से खुश करने में लगे रहते थे. उनकी चापलूसी करने से भी नहीं चूकते. शिक्षकों के हाथ में परीक्षा के जो अंक हुआ करते थे उनको पाने के लिए छात्रों में स्पर्धा लगी रहती थी. इसके विरुद्ध शान शिक्षकों की चापलूसी करने से कोसों दूर था. इसका मतलब यह नहीं कि वह शिक्षकों का कम सन्मान करता था.

एक बार शान और उसके स्कूल के एक दोस्त के बीच हो रही बातचीत ने उसे बहुत मुश्किल में डाल दिया.

शान का दोस्त उसे स्कूल के एक महत्वपूर्ण शिक्षक के बारे में बता रहा था, “अपने फ़ोर्ब्स टीचर हैं न, वे सही में सबसे बढ़िया और सबसे बुद्धिमान शिक्षक हैं. वे सबसे अच्छा पढ़ाते हैं. तुम्हे क्या लगता है?”

यह कहने के थोड़ी देर पहले शान के मित्र ने मिस्टर फ़ोर्ब्स को उनकी तरफ आते देख लिया था और उनकी प्रशंसा में जान बूझकर यह सब कह दिया. वह चाहता था कि फ़ोर्ब्स टीचर उनकी तारीफ़ सुन ले और किस विद्यार्थी ने उनकी तारीफ की उस विद्यार्थी को गौर से देख ले. भविष्य में इसका फायदा उस विद्यार्थी को मिस्टर फ़ोर्ब्स की ओर से जरूर मिलेगा.

पर शान की पीठ शिक्षक की तरफ होने से वह उन्हें देख नहीं पाया और बोला, “मुझे नहीं लगता कि वे सबसे अच्छा पढ़ाते हैं. वे बाजार में आसानी से मिलने वाली गाइड बुक्स, यानी कुंजियों में से पढ़ाते हैं. खुद का दिमाग ज्यादा नहीं लगाते.”

शान ने काफी नम्रता से सच-सच बात कह दी थी.

पर मिस्टर फ़ोर्ब्स को शान की यह बात चुभ गई. उन्होंने उसने की खुद की आलोचना सुन ली थी. फलस्वरूप इस घटना के बाद शान को मिस्टर फ़ोर्ब्स द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय में कभी भी अव्वल नंबर नहीं मिले. इसके पहले शान उनके विषय में हमेशा अव्वल आता था.

ऐसे छोटे मोटे हादसों को यदि छोड़ दें तब भी शान पूरी कक्षा में, साल दर साल, पहले स्कूल में और फिर कॉलेज की परीक्षाओं में प्रथम क्रमांक पर कायम बना रहा. अंत में वह इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी की डिग्री परीक्षा में यूनिवर्सिटी का टॉपर घोषित किया गया. कोई प्रोफेसर या कोई और विद्यार्थी उसे यूनिवर्सिटी गोल्ड मेडलिस्ट बनने से रोक नहीं सका.


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